गीतिका (Hindi Poetry - Geetika)
गीतिका (Geetika) छब्बीस मात्राओं का मात्रिक छन्द होता है। चौदह और बारह मात्राओं पर यति तथा अन्त में लघु गुरु होता है।
उदाहरण -
धर्म के मग में अधर्मी से कभी डरना नहीं।
चेतकर चलना कुमारग में कदम धरना नहीं।
शुद्ध भावों में भयानक भावना भरना नहीं।
ज्ञानवर्धक लेख लिखने में कमी करना नहीं॥
तोमर (Hindi Poetry - Tomr)
तोमर (Tomr) छन्द प्रत्येक चरण में बारह मात्राएँ होती हैं तथा अन्त में गुरु लघु होता है।
उदाहरण -
तब चले बान कराल। फुँकरत जनु बहु ब्याल॥
कोपेउ समर श्रीराम। चले विशिख निसित निकाम॥
मंगलवार, 16 दिसंबर 2014
सोमवार, 15 दिसंबर 2014
हरिगीतिका और बरवै
हरिगीतिका (Hindi Poetry - Harigeetika)
हरिगीतिका (Harigeetika) अट्ठाइस मात्राओं का छन्द होता है। सोलह और बारह मात्राओं पर यति होती है तथा अन्त में लघु गुरु होता है।
उदाहरण -
इस भाँति जब शोकार्त जननी को विलोका राम ने।
कहते हुए यों वर वचन दी सान्त्वना भगवान ने।
जो सुवन निज माता पिता की उचित सेवा कर सका।
निज त्याग श्रद्धा भाव से मानस न जिसका भर सका॥
बरवै (Hindi Poetry - Barwai)
बरवै (Barwai) के प्रथम और तृतीय चरण में बारह-बारह मात्राएँ तथा द्वितीय और चतुर्थ चरण में सात-सात मात्राएँ होती हैं।
उदाहरण -
चम्पक हरवा अंग मिलि, अधिक सुहाय।
जानि परै सिय हियरे, जब कुम्हलाय॥
हरिगीतिका (Harigeetika) अट्ठाइस मात्राओं का छन्द होता है। सोलह और बारह मात्राओं पर यति होती है तथा अन्त में लघु गुरु होता है।
उदाहरण -
इस भाँति जब शोकार्त जननी को विलोका राम ने।
कहते हुए यों वर वचन दी सान्त्वना भगवान ने।
जो सुवन निज माता पिता की उचित सेवा कर सका।
निज त्याग श्रद्धा भाव से मानस न जिसका भर सका॥
बरवै (Hindi Poetry - Barwai)
बरवै (Barwai) के प्रथम और तृतीय चरण में बारह-बारह मात्राएँ तथा द्वितीय और चतुर्थ चरण में सात-सात मात्राएँ होती हैं।
उदाहरण -
चम्पक हरवा अंग मिलि, अधिक सुहाय।
जानि परै सिय हियरे, जब कुम्हलाय॥
रोला और कुण्डलिया (Hindi Poetry - Rola and Kundalia)
रोला (Hindi Poetry - Rola)
रोला (Rola) चौबीस मात्राओं वाला छन्द है। ग्यारह और तेरह मात्राओं पर यति होती है।
उदाहरण -
शशि बिन सूनी रैन, ज्ञान बिन हिरदय सूनो।
घर सूनो बिन पुत्र, पत्र बिन तरुवर सूनो।
गज सूनो इक दन्त, और वन पुहुप विहूनो।
द्विज सूनो बिन वेद, ललित बिन सायर सूनो॥
कुण्डलिया (Hindi Poetry - Kundalia)
कुण्डलिया (Kundalia) छः चरणों का छन्द होता है जो एक दोहा और दो रोला को मिलाकर बनता है। दोहे का चौथा चरण पहले रोले का पहला चरण होता है। जिस शब्द से कुण्डलिया (Kundalia) शुरू होता है, उसी शब्द से ही समाप्त भी होता है।
उदाहरण -
गुनके गाहक सहस नर बिन गुन लहै न कोय।
जैसे कागा-कोकिला शब्द सुनै सब कोय।
शब्द सुनै सब कोय कोकिला सबै सुहावन।
दोऊ को इक रंग काग सब गनै अपावन॥
कह गिरधर कविराय सुनो हो ठाकुर मन के।
बिन गुन लहै न कोय सहस नर गाहक गुनके॥
रोला (Rola) चौबीस मात्राओं वाला छन्द है। ग्यारह और तेरह मात्राओं पर यति होती है।
उदाहरण -
शशि बिन सूनी रैन, ज्ञान बिन हिरदय सूनो।
घर सूनो बिन पुत्र, पत्र बिन तरुवर सूनो।
गज सूनो इक दन्त, और वन पुहुप विहूनो।
द्विज सूनो बिन वेद, ललित बिन सायर सूनो॥
कुण्डलिया (Hindi Poetry - Kundalia)
कुण्डलिया (Kundalia) छः चरणों का छन्द होता है जो एक दोहा और दो रोला को मिलाकर बनता है। दोहे का चौथा चरण पहले रोले का पहला चरण होता है। जिस शब्द से कुण्डलिया (Kundalia) शुरू होता है, उसी शब्द से ही समाप्त भी होता है।
उदाहरण -
गुनके गाहक सहस नर बिन गुन लहै न कोय।
जैसे कागा-कोकिला शब्द सुनै सब कोय।
शब्द सुनै सब कोय कोकिला सबै सुहावन।
दोऊ को इक रंग काग सब गनै अपावन॥
कह गिरधर कविराय सुनो हो ठाकुर मन के।
बिन गुन लहै न कोय सहस नर गाहक गुनके॥
रविवार, 14 दिसंबर 2014
सोरठा (Hindi Poetry - Sortha)
सोरठा (Sortha) एक मात्रिक छन्द है। यह एक अर्द्ध सम छन्द है। यह दोहे से ठीक उल्टा होता है क्योंकि इसके पहले तथा तीसरे चरणों में ग्यारह-ग्यारह मात्राएँ एवं दूसरे तथा चौथे चरणों में तेरह-तेरह मात्राएँ होती हैं। पहले तथा तीसरे चरणों के अन्त में तुकान्त तथा गुरु लघु होना अनिवार्य होता है।
उदाहरण -
सुनि केवट के बैन, प्रेम लपेटे अटपटे।
विहँसे करुनाऐन, चितै जानकी लखन तन॥
उदाहरण -
सुनि केवट के बैन, प्रेम लपेटे अटपटे।
विहँसे करुनाऐन, चितै जानकी लखन तन॥
दोहा - हिन्दी काव्य के अंग - रस (Hindi Poetry - Doha)
दोहा (Doha) एक मात्रिक छन्द है। यह एक अर्द्ध सम छन्द है तथा इसके पहले तथा तीसरे चरणों में तेरह-तेरह मात्राएँ एवं दूसरे तथा चौथे चरणों में ग्यारह-ग्यारह मात्राएँ होती हैं। पहले तथा तीसरे चरणों के अन्त में यति एवं दूसरे तथा चौथे चरणों के अन्त में गुरु लघु होना अनिवार्य होता है।
उदाहरण -
रहिमन निज मन की व्यथा, मन में राखो गोय।
सुन इठलैहैं लोग सब, बाँट न लैहैं कोय॥
उदाहरण -
रहिमन निज मन की व्यथा, मन में राखो गोय।
सुन इठलैहैं लोग सब, बाँट न लैहैं कोय॥
चौपाई - हिन्दी काव्य के अंग - रस (Hindi Poetry - Choupai)
चौपाई एक मात्रिक छन्द है। यह एक सम छन्द है तथा इसके प्रत्येक चरण में सोलह मात्राएँ होती हैं।
उदाहरण -
सुधा सुधाकर सुरसरि साधू। गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू॥
गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई॥
उदाहरण -
सुधा सुधाकर सुरसरि साधू। गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू॥
गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई॥
छन्दों के भेद (Hindi Poetry - Kinds of Chhand)
मात्रा और वर्ण के आधार पर छन्द दो प्रकार के होते हैं - मात्रिक छंद और वर्णिक छन्द
- मात्रिक छंद - मात्राओं की संख्या को ध्यान में रखकर रचे गये छंद मात्रिक छन्द कहलाते हैं।
- वर्णिक छंद - वर्णों की संख्या को ध्यान में रखकर रचे गये छंद वर्णिक छन्द कहलाते हैं।
- सम - जिन छन्दों के चारों चरणों की मात्राएँ या वर्ण एक से होते हैं वे सम कहलाते हैं जैसे चौपाई, इन्द्रबज्रा आदि।
- अर्द्ध सम - जिन छन्दों में पहले और तीसरे तथा दूसरे और चौथे चरणों में मात्राएँ या वर्ण समान होते हैं वे अर्द्ध सम कहलाते हैं जैसे दोहा, सोरठा आदि।
- विषम - जिन छन्दों में चार से अधिक चरण हों और वे एक समान न हों वे विषम छन्द कहलाते हैं जैसे कुण्डलिया, छप्पय आदि।
छन्द (Hindi Poetry - Chhand)
वर्ण, मात्रा, गति, यति, लय और चरणान्त सम्बन्धी नियमों से युक्त रचना को छन्द कहते हैं।
गणो के नामों और लक्षणों को याद रखने के लिए सूत्र है - यमाताराजभानसलगा
- वर्ण - वर्ण (अक्षर) दो प्रकार के होते हैं - दीर्घ अथवा गुरु और ह्रस्व अथवा लघु। गुरु को "ऽ" तथा लघु को "।" चिह्नों से प्रदर्शित किया जाता है।
- मात्रा - अ, इ, उ, ऋ की मात्रा को एक और आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं तथा अः की मात्रा को दो मात्रा मानी जाती है। जैसे "राम" में प्रथम वर्ण "रा" गुरु अर्थात दो मात्रा वाली है और द्वितीय वर्ण "म" लघु अर्थात एक मात्रा वाली है अतः "राम" शब्द में कुल तीन मात्राएँ हुईं। संयुक्ताक्षर में प्रथम वर्ण की दो मात्राएँ मानी जाती हैं जैसे "मुक्त" में प्रथम अक्षर के लघु होते हुए भी उसे गुरु माना जावेगा।
- लय - चरणों का के अन्तिम व्यञ्जन और मात्रा की समानता को लय या तुक कहा जाता है जैसे - "मांगी नाव न केवट आना। कहहिं तुम्हार मरमु मैं जाना॥" में "आना" और "जाना"।
- गति - छन्दों की मात्राओं अथवा वर्णों में जो प्रवाह होता है उसे गति कहते हैं।
- यति - छंदों को गाते समय बीच में जो हल्का सा रुकाव होता है उसे यति कहा जाता है।
- गण - तीन मात्राओं के समूह को गण कहा जाता है। गण आठ प्रकार के होते हैं -
गण का नाम | लक्षण | चिह्न | उदाहरण |
यगण | प्रथम वर्ण लघु, शेष गुरु | ।ऽऽ | दिखावा |
मगण | तीनों वर्ण गरु | ऽऽऽ | पाषाणी |
तगण | प्रथम दो गुरु अंतिम लघु | ऽऽ। | तालाब |
रगण | प्रथम और अन्तिम गुरु बीच का लघु | ऽ।ऽ | साधना |
जगण | प्रथम और अन्तिम लघु बीच का गुरु | ।ऽ। | पहाड़ |
भगण | प्रथम गुरु शेष लघु | ऽ।। | भारत |
नगण | तीनों वर्ण लघु | ।।। | सरल |
सगण | प्रथम दो लघु अन्तिम गुरु | ।।ऽ | महिमा |
गणो के नामों और लक्षणों को याद रखने के लिए सूत्र है - यमाताराजभानसलगा
वात्सल्य रस (Hindi Poetry - Vatsalya Ras)
बड़ों का छोटों के प्रति स्नेह से वात्सल्य रस (Vatsalya Ras) की उत्पत्ति होती है।
मैया, कबहिं बढ़ैगी चोटी।
किती बार मोहि दूध पियत भै, यह अजहूँ है छोटी।
तू जो कहति बल की बेनी ह्वै हैं लाँबी-मोटी।
काढ़त गुहत न्हवावत ओछत नागिन सी भ्वैं लोटी।
पचि पचि दूध पियावत मोको देत न माखन रोटी।
'सूर' श्याम चिरजीवौ दोउ हरि हलधर की जोटी॥
- स्थायीभाव - वात्सल्य (स्नेह)
- आलम्बन विभाव - पुत्र-पुत्री, शिशु, कनिष्ठ जन आदि
- उद्दीपन विभाव - शिशु की तोतली बोली, रूप, क्रीड़ाएँ आदि
- अनुभाव - प्यार-दुलार, चुम्बन, छाती से लगाना आदि
- संचारी भाव - गर्व, हर्ष, शंका, आवेग आदि
मैया, कबहिं बढ़ैगी चोटी।
किती बार मोहि दूध पियत भै, यह अजहूँ है छोटी।
तू जो कहति बल की बेनी ह्वै हैं लाँबी-मोटी।
काढ़त गुहत न्हवावत ओछत नागिन सी भ्वैं लोटी।
पचि पचि दूध पियावत मोको देत न माखन रोटी।
'सूर' श्याम चिरजीवौ दोउ हरि हलधर की जोटी॥
शान्त रस (Hindi Poetry - Shant Ras)
संसार की असारता के कारण उत्पन्न हुए वैराग्य से शान्त रस (Shant Ras) की उत्पत्ति होती है।
अब लौं नसानी, अब न नसैहौं।
रामकृपा भवनिसा सिरानी जागे पुनि न डसैहौं॥
पायो नाम चारु चिन्तामनि उर कर तें न खसैहौं।
स्याम रूप सुचि रुचिर कसौटी चित कंचनहिं कसैहौं॥
- स्थायीभाव - निर्वेद (वैराग्य)
- आलम्बन विभाव - ईश्वर चिन्तन, विश्व कल्याण आदि
- उद्दीपन विभाव - सत्संग, शास्त्र श्रवण, तीर्थाटन आदि
- अनुभाव - पश्चाताप, सांसारिक दुःखों से कातर होन, पुलक आदि
- संचारी भाव - ग्लानि, उद्वेग, जड़ता, दैन्य, वैराग्य आदि
अब लौं नसानी, अब न नसैहौं।
रामकृपा भवनिसा सिरानी जागे पुनि न डसैहौं॥
पायो नाम चारु चिन्तामनि उर कर तें न खसैहौं।
स्याम रूप सुचि रुचिर कसौटी चित कंचनहिं कसैहौं॥
अद्भुत रस (Hindi Poetry - Adbhut Ras)
आश्चर्यजनक वस्तुओं को देखकर या उनका वर्णन पढ़-सुन कर विस्मय के भाव उत्पन्न होने से अद्भुत रस (Adbhut Ras) की उत्पत्ति होती है।
लीन्हों उखारि पहार विशाल, चल्यौ तेहि काल विलम्ब न लायौ।
मारुत-नन्दन मारुत को, मन को खगराज को वेग लजायौ।
तीखो तुरा तुलसी कहतो पै हिए उपमा को समाऊ न आयौ।
मानो प्रतक्ष परव्वत को नभ लीक लसी कपि यों धुकि धायौ॥
- स्थायीभाव - विस्मय (आश्चर्य)
- आलम्बन विभाव - रक्त, मांस, पीब, फूहड़पन आदि घृणित वस्तुएँ
- उद्दीपन विभाव - अलौकिक या लोकोत्तर वर्णन सुनना या देखना आदि
- अनुभाव - स्वर भंग, स्वेद, रोमांच, उत्फुल्लता, आश्चर्यचकित होन आदि
- संचारी भाव - हर्ष, आवेग, जड़ता, भ्रान्ति, चिन्ता, तर्क आदि
लीन्हों उखारि पहार विशाल, चल्यौ तेहि काल विलम्ब न लायौ।
मारुत-नन्दन मारुत को, मन को खगराज को वेग लजायौ।
तीखो तुरा तुलसी कहतो पै हिए उपमा को समाऊ न आयौ।
मानो प्रतक्ष परव्वत को नभ लीक लसी कपि यों धुकि धायौ॥
वीभत्स रस (Hindi Poetry - Veebhats Ras)
घृणित वस्तुओं के द्वारा ग्लानि से वीभत्स रस (Veebhats Ras) की उत्पत्ति होती है।
सिर पर बैठ्यो काग, आँख दोउ खात निकारत।
खींचत जीभहिं स्यार, अतिहि आनन्द उर धारत।
गिद्ध जाँघ कहँ खोदि-खोदि कै मांस उचारत।
श्वान अंगुरिन काटि-काटि कै खात निकारत।
बहु चील नोचि लै जात तुच, मोद मढ़यो सबको हियो।
मनु ब्रह्भोज जिजमान कोउ, आज भिखारिन कहँ दियो॥
- स्थायीभाव - घृणा (जुजुप्सा)
- आलम्बन विभाव - रक्त, मांस, पीब, फूहड़पन आदि घृणित वस्तुएँ
- उद्दीपन विभाव - घृणित वस्तु, दुर्गन्ध आदि
- अनुभाव - थूकना, मुँह बिगाड़ना, रोमांच आदि
- संचारी भाव - मूर्च्छा, आवेग, असूया, मोह, व्याधि मरण आदि
सिर पर बैठ्यो काग, आँख दोउ खात निकारत।
खींचत जीभहिं स्यार, अतिहि आनन्द उर धारत।
गिद्ध जाँघ कहँ खोदि-खोदि कै मांस उचारत।
श्वान अंगुरिन काटि-काटि कै खात निकारत।
बहु चील नोचि लै जात तुच, मोद मढ़यो सबको हियो।
मनु ब्रह्भोज जिजमान कोउ, आज भिखारिन कहँ दियो॥
भयानक रस (Hindi Poetry - Bhayanak Ras)
भयंकर जीव-जन्तुओं के दर्शन, वर्णन से भयानक रस की उत्पत्ति होती है।
एक ओर अजगरहिं लखि, एक ओर मृगराइ।
बिकल बटोही बीच ही, पर्यौ मूर्च्छा खाइ॥
- स्थायीभाव - भय
- आलम्बन विभाव - निर्जन स्थान, हिंसक जन्तु, अंधकार, वन, चोर-डाकू आदि
- उद्दीपन विभाव - हिंसक जीवों की ध्वनि और चेष्टाएँ, भयंकर दृश्य, निर्जन स्थान आदि
- अनुभाव - रोना, चिल्लाना, मूर्च्छा, कम्प, स्वेद, रोमांच, पलायन आदि
- संचारी भाव - भ्रम, ग्लानि, शंका, त्रास, दैन्य, मरण आदि
एक ओर अजगरहिं लखि, एक ओर मृगराइ।
बिकल बटोही बीच ही, पर्यौ मूर्च्छा खाइ॥
वीर रस (Hindi Poetry - Veer Ras)
अत्यन्त कठिन कार्य करने के उत्साह से रस की उत्पत्ति होती है। वीर रस के चार प्रकार हैं - युद्धवीर, दानवीर, दयावीर और धर्रमवीर।
युद्धवीर
मैं सत्य कहता हूँ सखे! सुकुमार मत जानो मुझे।
यमराज से भी युद्ध में प्रस्तुत सदा मानो मुझे।
है और की तो बात क्या, गर्व मैं करता नहीं।
मामा तथा निज तात से भी समर में डरता नहीं॥
दानवीर
भामिनि देहुँ सब लोक तज्यौ हठ मोरे यहै मन भाई।
लोक चतुर्दश की सुख सम्पति लागत विप्र बिना दुःखदाई।
जाइ बसौं उनके गृह में करिहौं द्विज दम्पति की सेवकाई।
तौ मनमाहि रुचै न रुचै सो रुचै हमैं तो वह ठौर सदाई॥
दयावीर
लेकिन अब मेरी धरती पर जुल्म न होंगे,
और किसी अबला पर अत्याचार न होगा।
अब नीलाम न होगी निर्धनता हाटों में,
कोई आँख दीनता से बीमार न होगी॥
धर्मवीर
फिरे द्रौपदी बिना वसह, परवाह नहीं है।
धन-वैभव-सुत राजपाट की चाह नहीं है।
पहले पाण्डव और युधिष्ठिर मिट जायेंगे।
तदन्तर ही दीप धर्म के बुझ पायेंगे।
युद्धवीर
- स्थायीभाव - उत्साह
- आलम्बन विभाव - अत्याचार, शत्रु
- अनुभाव - शत्रु के कार्य
- संचारी भाव - आवेग, गर्व, असूया, हर्ष, उत्सुकता, वितर्क, धैर्य आदि।
मैं सत्य कहता हूँ सखे! सुकुमार मत जानो मुझे।
यमराज से भी युद्ध में प्रस्तुत सदा मानो मुझे।
है और की तो बात क्या, गर्व मैं करता नहीं।
मामा तथा निज तात से भी समर में डरता नहीं॥
दानवीर
- स्थायीभाव - उत्साह
- आलम्बन विभाव - दीन व्यक्ति, भिक्षुक आदि
- उद्दीपन विभाव - दानपात्र की प्रशंसा
- अनुभाव - याचक का सम्मान
- संचारी भाव - आवेग, गर्व, हर्ष आदि
भामिनि देहुँ सब लोक तज्यौ हठ मोरे यहै मन भाई।
लोक चतुर्दश की सुख सम्पति लागत विप्र बिना दुःखदाई।
जाइ बसौं उनके गृह में करिहौं द्विज दम्पति की सेवकाई।
तौ मनमाहि रुचै न रुचै सो रुचै हमैं तो वह ठौर सदाई॥
दयावीर
- स्थायीभाव - उत्साह
- आलम्बन विभाव - दीन, आर्त्त, दुःखी आदि
- उद्दीपन विभाव - दीनता, कष्ट आदि
- अनुभाव - सान्त्वना, मधुर वचन आदि
- संचारी भाव - पुलक, उत्कण्ठा, चपलता आदि
लेकिन अब मेरी धरती पर जुल्म न होंगे,
और किसी अबला पर अत्याचार न होगा।
अब नीलाम न होगी निर्धनता हाटों में,
कोई आँख दीनता से बीमार न होगी॥
धर्मवीर
- स्थायीभाव - उत्साह
- आलम्बन विभाव - धर्मनिष्ठा
- उद्दीपन विभाव - धर्म के प्रति श्रद्धा, धर्मग्रंथ का पठन, उपदेशादि
- अनुभाव - धर्मानुकूल आचरण, धर्मरक्षा आदि
- संचारी भाव - क्षमा, हर्ष आदि
फिरे द्रौपदी बिना वसह, परवाह नहीं है।
धन-वैभव-सुत राजपाट की चाह नहीं है।
पहले पाण्डव और युधिष्ठिर मिट जायेंगे।
तदन्तर ही दीप धर्म के बुझ पायेंगे।
रौद्र रस (Hindi Poetry - Roudra Ras)
निन्दा, हानि, विरोध आदि के द्वारा प्रतिशोध की भावना उत्पन्न होने से रौद्र रस की उत्पत्ति होती है।
- स्थायीभाव - क्रोध
- आलम्बन विभाव - शत्रु
- उद्दीपन विभाव - शत्रु की अशिष्ट चेष्टाएँ
- अनुभाव - नेत्रों का लाल होना, दाँत पीसना, नथुनों का फड़कना, भौहों का टेढ़ा होना, गर्जन-तर्जन, शस्त्रादि उठा लेना
- संचारी भाव - आवेश, उग्रता, अमर्ष, चपलता, स्मृति, मोह, मद आदि
बोरौ सवै रघुवंश कुठार की धार में बारन बाजि सरत्थहि।
बान की वायु उड़ाइ कै लच्छन लक्ष्य करौ अरि हा समरत्थहिं।
रामहिं बाम समेत पठै बन कोप के भार में भूजौ भरत्थहिं।
जो धनु हाथ धरै रघुनाथ तो आजु अनाथ करौ दसरत्थहि॥
करुण रस (Hindi Poetry - Karun Ras)
बन्धु, स्वजन मित्र आदि का वियोग या विनाश, द्रव्यनाश, अनिष्ट आदि करुण रस (Karun Ras) रस को जन्म देते हैं।
- स्थायीभाव - शोक (दुःख)
- आलम्बन विभाव - विनष्ट बन्धु, स्वजन मित्र आदि
- उद्दीपन विभाव - प्रियजनों का दाहकर्म, उनके कार्यों तथा वस्त्रादि का स्मरण आदि।
- संचारी भाव - मोह, निर्वेद, व्याधि, ग्लानि, भ्रम, जड़ता आदि।
हा धर्मवीर! आर्य भीम हरे हरे।
हा प्रिय नकुल सहदेव भ्राता उत्तरे हा उत्तरे।
हा देविकृष्णे! हा सुभद्रे! यह अधम अर्जुन चला।
धिक् है क्षमा करना मुझे मुझसे हुआ रिप का भला॥
हास्य रस (Hindi Poetry - Hasya Ras)
विकृत वेशभूषावाली चेष्टा या विकृत असामान्य कथन से उत्पन्न विनोद से जो आनन्द प्राप्त होता है वह हास्य रस (Hasya Ras) कहलाता है।
ठगधन मगधन लूटधन और रतनधन खान।
जो घर आवे घूस धन सब धन धूरि समान॥
- स्थायीभाव - हास्य
- आलम्बन विभाव - विकृत वेशभूषा, आकार अथवा परिस्थिति।
- उद्दीपन विभाव - अनोखी आकृति, आचरण आदि।
- संचारी भाव - हर्ष, चपलता, आलस्य, निद्रा आदि
ठगधन मगधन लूटधन और रतनधन खान।
जो घर आवे घूस धन सब धन धूरि समान॥
श्रृंगार रस (Hindi Poetry - Shringar Ras)
प्रेम की दो अवस्थाएँ मानी गई हैं - पहला संयोग और दूसरा वियोग। अतः श्रृंगार रस (Shringar Ras) के भी दो प्रकार हैं - पहला संयोग श्रृंगार और दूसरा वियोग श्रृंगार।
संयोग श्रृंगार
नायक और नायिका का एक दूसरे से मिलन संयोग श्रृंगार को जन्म देता है। संयोग श्रृंगार में नायक तथा नायिका के प्रेमपूर्ण विविध क्रियाकलापों, जैसे कि मिलन, दर्शन, वार्तालाप आदि, का वर्णन होता है।
- स्थायीभाव - रति
- आलम्बन विभाव- नायक और नायिका - दोनों एक दूसरे के आलम्बन होते हैं।
- उद्दीपन विभाव - रूप, सौन्दर्य, श्रृंगार, चेष्टाएँ, चांदनी रात, एकान्त स्थान, रमणीय वातावरण आदि।
- अनुभाव - एक दूसरे को देखना, प्रेमालाप, कटाक्ष, आलिंगन, स्वेद, अश्रु, रोमांच, कम्प आदि।
बतरस लालच लाल की मुसली धरी लुकाई।
सौंह करै भौहनि हँसै दैन कहइ नट जाइ॥
वियोग श्रृंगार
नायक नायिका का परस्पर वियोग वियोग श्रृंगार को जन्म देता है। इसमें अन्य भाव संयोग श्रृंगार की भाँति ही होते हैं।
उदाहरण -
हे खग मृग हे मधुकर श्रेणी। तुम देखी सीता मृगनैनी॥
रस (Hindi Poetry - Ras)
रस हिन्दी का एक शब्द है जिसका अर्थ होता है 'आनन्द'। वैसे तो बहुत से ऐसे कार्य हैं जिनसे हमें आनन्द का अनुभव होता है, किन्तु काव्य (कविता) के पठन, श्रवण या अभिनय के दर्शन से जिस आनन्द की प्राप्ति होती है वह अत्यन्त अद्भुत तथा अलौकिक होता है। काव्य पठन अथवा श्रवण या अभिनय के दर्शन जिस अलौकिक आनन्द की प्राप्ति होती है उसे ही रस कहा जाता है।
रस को काव्य की आत्मा माना गया है।
रस के प्रकार तथा स्थाई भाव -
श्रृंगार रस - रति/प्रेम
हास्य रस - हास
करुण रस - शोक
वीर रस - उत्साह
रौद्र रस - क्रोध
भयानक रस - भय
वीभत्स रस - घृणा
अद्भुत रस - आश्चर्य
शांत रस - वैराग्य
वात्सल्य रस - वात्सल्य
भक्ति रस - अनुराग
रस को काव्य की आत्मा माना गया है।
रस के प्रकार तथा स्थाई भाव -
श्रृंगार रस - रति/प्रेम
हास्य रस - हास
करुण रस - शोक
वीर रस - उत्साह
रौद्र रस - क्रोध
भयानक रस - भय
वीभत्स रस - घृणा
अद्भुत रस - आश्चर्य
शांत रस - वैराग्य
वात्सल्य रस - वात्सल्य
भक्ति रस - अनुराग
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